Friday, 25 January 2013

सोम शर्मा की पितृभक्ति भाग ३








महाभाग सोमशर्मा ने इस प्रकार विचार करके ज्यों ही उस घड़े की देखा,त्यों ही वह अमृत से भर गया! घड़े को भरा देख उसे हाथ में ले महायशस्वी सोमशर्मा तुरंत ही पिता के पास गए और उन्हें प्रणाम करके बोले--पिताजी ! लीजिये,यह अमृत से भरा घड़ा आ गया ! इसे पीकर शीघ्र ही रोग से मुक्त हो जाइये !'पुत्र का यह परम पुन्यमय तथा सत्य और धर्म से युक्त मधुर वचन सुनकर शिवशर्मा को बड़ा हर्ष हुआ !वे बोले -‘पुत्र! आज मैं तुम्हारी तपस्या,इन्द्रियसंयम, शौच,गुरुशुश्रुषा तथा भक्तिभाव से विशेष संतुष्ट हूँ! लो, अब मैं इस विकृत रूप का त्याग करता हूँ !’

यों कहकर ब्राह्मण शिवशर्मा ने पुत्र को अपने पहले रूप में दर्शन दिया ! सोमशर्मा ने माता पिता को पहले जिस रूप में देखा था,उसी रूप में उस समय भी देखा !वे दोनों महात्मा सूर्यमंडल की भांति तेज से दीप्त हो रहे थे ! सोमशर्मा ने बड़ी भक्ति के साथ उन महात्माओं के चरणों में मस्तक झुकाया ! तदन्तर वे दोनों पति पत्नी पुत्र से बातचीत करके अत्यंत प्रसन्न हुए ! फिर धर्मात्मा ब्राह्मण भगवन श्री विष्णु की कृपा से अपनी पत्नी को साथ ले विष्णुधाम को चले गए ! अपने पुण्य और योगाभ्यास के प्रभाव से उन मह्रिषी ने दुर्लभ पद प्राप्त कर लिया !

सोमशर्मा की पितृभक्ति भाग २


सोमशर्मा अपने दोनों माता पिता को कंधे पर बैठा कर तीर्थों में लेकर जाया करते थे! वे वेदों के ज्ञाता थे अतः मांगलिक मन्त्रों का उच्चारंपूर्वक दोनों को नहलाते और स्वयं भी स्नान करते थे! फिर पितरों का तर्पण और देवताओं का पूजन भी वे उन दोनों से प्रतिदिन कराया करते थे! स्वयं अग्नि में होम करते और अपने सभी कार्य अपने माता पिता को बताया करते थे!सोमशर्मा  प्रतिदिन उन दोनों को शय्या पर सुलाते और उन्हें पत्र पुष्प आदि सब सामग्री निवेदन करते थे! परम सुगन्धित पान लगाकर माता पिता को अर्पण करते तथा नित्य प्रति उनकी  इच्छानुसार फल मूल,दूध आदि उत्तमोत्तम भोज्य पदार्थ खाने को देते थे! इस क्रम से वे सदा ही माता पिता को प्रसन्न रखने की चेष्टा करते थे! पिता सोमशर्मा को बुलाकर उन्हें नाना प्रकार के कठोर एवं दुखदायी वचनों से पीड़ित करते और उन्हें डंडों से पीटते भी थे!यह सब करने पर भी धरमात्मा सोमशर्मा कभी पिता के ऊपर क्रोध नहीं करते थे! वे सदा संतुष्ट रहकर मन,वाणी और क्रिया—तीनो के ही द्वारा पिता की पूजा करते थे!

ये सब बातें जानकार शिव्शार्मा अपने चरित्र पर विचार करने लगे! उन्होने सोचा---“सोमशर्मा का मेरी सेवा में अधिक अनुराग दिखाई देता है,इसीलिए समय पर मैंने इसके तप की परीक्षा की है;किन्तु मेरा पुत्र भक्ति भाव तथा सत्यपूर्ण बर्ताव से ब्रष्ट नहीं हो रहा है!निंदा करने और मारने पर भी सदा मीठे वचन ही बोलता है!इस प्रकार मेरा बुद्धिमान पुत्र दुष्कर सदाचार का पालन कर रहा है!अतः अब मैं भगवान् विष्णु के प्रसाद से इसके दुःख दूर करूंगा!’इस प्रकार बहुत देर तक सोच विचार करने के बाद परम बुद्धिमान शिव्शार्मा ने पुनः माया का प्रयोग किया!अमृत के घड़े से अमृत का अपहरण कर लिया उसके बाद सोमशर्मा को बुला कर कहा----‘पुत्र! मैंने तुम्हारे हाथ में रोगनाशक अमृत सोंपा था,उसे शीघ्र लाकर मुझे अर्पण करो,जिससे मैं इस समय उसका पान कर सकूं!’ 
पिता के यों कहने पर सोमशर्मा तुरंत उठ कर चल दिए! अमृत के घड़े के पास जाकर उन्होंने देखा की वह खाली पड़ा है----उसमे अमृत के एक बूँद भी नहीं है! यह देख कर परम सौभाग्यशाली सोमशर्मा ने मन ही मन कहा----‘यदि मुझ में सत्य और गुरु-सुश्रुषा है,यदि मैंने पूर्वकाल में निच्छल ह्रदय से तपस्या की है,इन्द्रिय संयम,सत्य और शौच आदि धर्मों का ही सदा पालन किया है तो यह घड़ा निश्चय ही अमृत से भर जाये!’

सोमशर्मा की पितृभक्ति भाग १


शिव शर्मा नामक ब्राह्मण ने अपने पुत्र सोमशर्मा से कहा,”पुत्र,तुम मेरे बड़े आज्ञाकारी हो!मैं इस समय तुम्हे यह अमृत का घड़ा दे रहा हूँ,तुम सदा इसकी रक्षा करना!मैं तुम्हारी माता के साथ तीर्थयात्रा करने जाऊँगा!” यह सुनकर सोमशर्मा ने कहा’पिता श्री,ऐसा ही होगा!” बुद्धिमान शिवशर्मा सोमशर्मा के हाथों में वह घड़ा देकर वहां से चल दिएऔर दस वर्षों तक निरंतर तपस्या में लगे रहे! धर्मात्मा सोमशर्मा दिन-रात आलस्य त्याग कर उस अमृत कुम्भ की रक्षा करने लगे!दस वर्षों के पश्चात शिवशर्मा पुनः लौटकर वहां आये!
ये माया का प्रयोग कर के पत्नी सहित कोढ़ी बनगए! जैसे वे स्वयं कुष्ठरोग से पीड़ित थे,उसी प्रकार उनकी इस्त्री भी थी! दोनों ही मांस पिंड के सामान त्याग देने योग्य दिखाई देते थे! वे धीरचित्त ब्राह्मण महात्मा सोमशर्मा के समीप आये!वहां पधारे हुवे माता-पिता को सर्वथा दुःख से पीड़ित देख कर महायशस्वी सोमशर्मा बड़े दुखी हुवे! भक्ति से उनका मस्तक झुक गया! वे उन दोनों के चरणों में गिर गए और बोले-पिता जी! मैं दुसरे किसी को ऐसा नहीं देखता जो तपस्या,गुणों और पुण्य से युक्त होकर आपकी समानता कर सके फिर भी आपको यह क्या हो गया?विप्रवर! संपूर्ण देवता सदा दास की भांति आपकी आज्ञा में लगे रहते हैं! वे आपके तेज से खिंच कर यहाँ आ जाते हैं आप इतने शक्तिशाली हैं तो भी किस पाप के कारण आपके शारीर में यह पीड़ा देने वाला रोग हो गया? ब्राह्मणश्रेष्ठ! इसका कारण बताइए! यहमेरी माता भी पुन्यवती  है, इसका पुण्य महान है,यह पातिव्रत धर्म का पालन करने वाली है! यह अपने स्वामी की कृपा से समूची त्रिलोकी को भी धारण करने में समर्थ है,ऐसी मेरी माता क्यों इस कष्टकारी कुष्ठरोग का दुःख भोग रही है?
शिवशर्मा बोले---महाभाग! तुम शोक न करो; सबको अपने कर्मों का फल भोगना पड़ता हैक्योंकि मनुष्य प्रायः पूर्वजन्म कृत पाप और पुन्यमय कर्मों से युक्त हो कर दुःख सुख भोगता है! अब तुम शोक छोड़ कर हमारे घावों को धोकर साफ़ करो!
पिता का यह शुभ वाक्य सुनकर महायशस्वी सोमशर्मा ने कहा----“आप दोनों पुन्यतामा हैं; मैं आपकी सेवा अवश्य करूंगा! माता पिता की सेवा के अतिरिक्त मेरा और कर्त्तव्य ही क्या है!” सोमशर्मा उन दोनों के दुःख से दुखी थे! वे माता पिता के मल-मूत्र तथा काफ आदि धोते! अपने हाथों से उनके चरण आदि पखारते और दबाया करते थे! उनके रहने और नहाने आदि का प्रबंध भी वे पूर्ण भक्ति के साथ स्वयं ही करते थे! विप्रवर सोमशर्मा बड़े यशस्वी,धर्मात्मा और सत्पुरुषों में श्रेष्ठ थे!                            

Thursday, 15 November 2012

बुद्ध की चिंता

एक बार महात्मा बुद्ध किसी वृक्ष के नीचे विश्राम कर रहे थे!वृक्ष आम का था!काफी बड़ा और घना!ठंडी ठंडी हवा चल रही थी!बुद्ध ध्यानमग्न थे!तभी एक पत्थर उनके माथे पर आकर लगा!माथे से रक्त की धारा बह निकली!उसी समय वहां पर तीन चार बच्चे आये और इस कृत्य के लिए उनसे माफ़ी मांगते हुवे बोले,"हमें माफ़ कर दीजिये!हमने आम के वृक्ष से फल तोड़ने के लिए पत्थर फेंका था जो भूल से आपको आ लगा!"बच्चों की बात सुनकर महात्मा बुद्ध की आंखे छलछला आयीं!वे विनम्रता से बोले,"बच्चों,मुझे पत्थर लगा,इसका मुझे जरा भी दुःख नहीं!दुःख तो इस बात का है कि पत्थर मारने पर वृक्ष तुम्हें मीठे फल देता है और जब पत्थर मुझे लगा तो तुम लोग भयभीत हो गए!मैं तुम्हे भय के सिवाय कुछ भी न दे सका!"भगवन बुद्ध के इस कथन से बच्चे उनके चरणों में झुक गए!

Friday, 12 October 2012

Life Is an Examination


              Life is an examination, God is the examiner,
                  The world is an examination hall,
                  And we are all taking the examination of life,
                  The time allowed is only three hours
                  The first hour is childhood,the second is youth&
                  The third one is old age
                  The bell of the last hour is rung by the messenger of God.

                  When the examination is over,the
                  answer book of life is snatched away
                  And life comes to an end.
                  Do not buff,do not cheat
                  And do not write any useless stuff.
                  As your work is to be examined by the Great Examiner.
                  
                  Be sufficient succint and clear,
                  It may get you good marks
                  Your performance may be estimable,
                  You may win the favour of the Great Examiner
                  You may pass and go to heaven to return earth no more.        
                        

Tuesday, 9 October 2012

गीदड़ और गौतम ब्रह्मण की कथा

एक  बार  एक गौतम नामक ब्राहमण था जिसने ऊँचे कुल और गौत्र में जन्म लिया था तथा वह वेदपाठी एवं श्रोत्रिय भी था!किन्तु वह अधिक धनि नहीं था!एक बार वह अपने घर से किसी कार्यवश सड़क से पैदल कहीं जा रहा था अकस्मात,मार्ग में उसके पास से एक धनि वैश्य अपने कीमती रथ पर सवार हो कर निकला!गौतम सड़क के मध्य में उसके रथ से आगे था!वैश्य ने अपने वाहन को रोककर ब्रह्मण को सड़क के सहारे होने का समय ही नहीं दिया!वह अपने धन,बल और रूप के मद से उन्मत्त हो रहा था उसने शीघ्रता से घोड़ो के द्वारा गौतम को चौट पहुंचाते हुए रथ आगे बढ़ा लिया!इस प्रकार वह बनिया ब्रह्मण की और अवहेलना पूर्वक देख कर हँसते और धुल उड़ाते हुवे अपने रास्ते चला गया!गौतम अपने तिरस्कार से बड़ा दुखी हुवा और सोचने लगा कि इस दुनिया में तो केवल धनि को ही जीने का अधिकार है निर्धन को नहीं!ऐसा जीवन जीने से तो मर जाना ही भला है!
अभी वह ऐसा सोच ही रहा था कि भगवन इन्द्र वहां एक गीदड़ के रूप में आये और उसके साथ साथ चलने लगे! गौतम पशुओं कि भाषा को जनता था!गीदड़ के द्वारा गौतम से उसकी निराशा का कारण पूछने पर उसने सारी घट्ना बता दी१तब गीदड़ ने कहा देखो,तुम मुझसे कहीं बहुत अधिक अच्छी अवस्था में हो! मेरे तो सारे शरीर में मक्खी,मच्छर और डांस काट काट कर मुझे पीड़ा देते रहते हैं!मैं उनसे अपने शरीर कि रक्षा भी नहीं कर सकता!मैं तो केवल दो हाथों के लिए ही भटकता हूँ!तुम्हारे पास तो दो हाथ हैं!मैं सर्दी गर्मी से भी अपनी रक्षा नहीं कर सकता किन्तु तुम्हे सब सुविधाएँ प्राप्त हैं!रोने पर मेरे आंसू तो सबको दीखते हैं किन्तु यदि मैं खुश होऊं तो मेरा हँसता चेहरा किसी को नहीं दीख सकता!और साथ ही जंगली जीव होने के कारण मुझे शेर चीतों के द्वारा खाए जाने का भी भय अलग लगा रहता है तब भी मैं तुम्हारी तरह आत्महत्या करने के विषय में तो कभी नहीं सोचता!
गौतम ने उसकी सांत्वना पूर्ण बाते सुनकर स्वयं को कुछ संभाला और उससे पूछा कि हे जीव,तुम कौन हो जो इस प्रकार विद्वानों कि तरह वार्तालाप करते हो! अपना परिचय दो!गीदड़ ने कहा मैं पिछले जन्म में एक ऊँचे कुल का धनि ब्राह्मण था!मैं अपने धन और ज्ञान के अहंकार में चूर हो कर अल्पज्ञानी हो कर भी अपने से अधिक विद्वान ब्राह्मणों से द्वेष रखता था!मैं उन्हें भरी सभाओं में नीचा दिखने का प्रयास और सदैव ही अपमानित करता था जिसके पाप वश मैं नीच योनी प्राप्त हुआ!तदन्तर पशचाताप हो जाने के परिणाम स्वरुप मुझे पिछले जन्म कि स्मृति अभी भी बनी हुई है!मैं अब भी यह चाहता हूँ कि मैं समय पर अपनी निर्धारित मृत्यु को पा कर क्रम से ब्रह्मा जी के रचे हुवे विधान के अनुसार विभिन्न योनियों में भ्रमण करता हुआ फिर से इस उच्च मनुष्य यों में जन्म लूँगा!सत्कर्म,भजन संकीर्तन और संत सेवा से इस दुस्तर संसार सागर से तर जाऊँगा!कभी भी अपने से ऊँचे लोगों से तुलना करके स्वयं को दुखी नहीं करना चाहिए अपने से नीचे प्राणियों को देखकर धैर्य धारण करना चाहिए!गीदड़ कि सब बातें सुनकर गौतम ने अपने मन में आई हुई ग्लानी को दूर किया और फिर से स्वस्थ चित्त हो कर सत्कार्यों में लग गया!

values of brahmcharya in our life

This is a very important book and should be read by every one,may ne of whatever age from 13yrs to 100yrs . This book by swami shivanand ji is worth reading by every one.brahmcharya is not meant just for sadhus and sanyasis.this should be practiced by every one.can be downloaded here from this link.free download